Justice Katju on a panel discussion with Rajdeep Sardesai, Anupam Kher and others on "Anna movement and Janlokpal".
Discussion from min (19:00 to 44:00)
मैंने पूरा लाईव कवरेज देखा और मै मा.न्यायमूर्ति मारकंडे काटजू जी से सहमत हूँ.अन्ना आन्दोलन के विषय पर मै कहना चाहूँगा कि ''आम आदमी मुर्ख है'' का आशय यह है कि विभक्त समाज उपेक्षित महसूस करता है ! वौद्धिकता स्वयम के साथ न्याय नहीं कर रही जातियों और नस्लों तक सिमट गयी है ! नव वौधिक बर्ग शब्दों को बेच कर जीवन यापन के लिए मजबूर है ? सनातन शब्द अपना अर्थ खो रहा ,सह -अस्तिव की भावना क्रमश:अस्त हो रही ! मानवतावादी शक्तियाँ चुप है , संवेदनशीलता समग्रता के साथ न होकर खेमे में बटी है ! उत्तरदायित्व बोध का आभाव सा है ? पूजीवाद का स्वरूप जब तक मानवतावादी नहीं होगा, वैश्विक स्तर पर उसके परिणाम नकारात्मक होंगें ! उसी का प्रतिफल वैचारिक विद्रपता है।हम सभी को आत्मावलोकन करना पड़ेगा की मूल समस्या की जड़ में वह कौन सा तत्व है!जिससे विषमताए आयीं है!मेरे मत में मूल समस्या के जड़ में हमारी प्रवृतियाँ है हम मानवीय न होकर आत्म केन्द्रित हो गए है,यह वैयक्तिक विचलन ही सभी के समस्याओं जड़ है,हम सब मानव जैसे दीखते अवश्य है,किन्तु अन्दर की संवेदना मृत प्राय:हो चुकी है मानवता,जिससे नैतिक मूल्यों में ह्रास आ रहा है और हम निजी स्वार्थ में दृष्टिहीन होते जा रहे है!मेरी अपनी व्यक्तिगत राय में केवल नैतिक मूल्यों से ही पाशविक प्रब्रितियो पर नियंत्रण पाया जा सकता है ,आंतरिक अनुशासन से ही हम समाज में अपना अस्तिव अक्षुण रख पा रहे है, अगर ऐसा न होता तो पाषाण युग से आज तक की यात्रा,या यूँ कहे की होमोसेम्पियेस से चेतना स्तर को हमने विकसित किया या प्रकृति के द्वारा हो गया कह नहीं सकता ! सब कुछ मानवीय अनुशासन से और मानवीयता से निसृत है और यह सब हमारे अंदर संवेदनशीलता से आती है, और संवेदना का विकास हमरे प्रबत्तियों से, और प्रबत्तियां हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से, और सांस्क्रतिक मूल्य धर्म से ,और धर्म हमरी पद्यतियों से जीवन शौली से! रही कानून व्यवस्था की बात, तो वो इसी अन्तर्द्वन्द की उपज है !व्यक्ति की पशुता को कानून से नही दूर किया जा सकता ! एतिहासिक सांसकृतिक पृष्ठिभूमि का बिहंगम अवलोकन \आवश्यक है !कानून व्यक्ति के लिए होता है पशु के लिए नहीं, अगर व्यक्ति में पशुता है तो देवत्व भी है! अभी कितने साल हुए गाँधी जी को हमसे अलग हुए जितने भी महापुरुष हुए है, वे ऐसा सिर्फ अपनी प्रबल घनीभूत संवेदनशीलता एवं द्रष्टिकोण व्यापकता की वजह से ही है। अत: खेमों में न बटते हुए घनीभूत मानवीयता का विकाश करें।
मैंने पूरा लाईव कवरेज देखा और मै मा.न्यायमूर्ति मारकंडे काटजू जी से सहमत हूँ.अन्ना आन्दोलन के विषय पर मै कहना चाहूँगा कि ''आम आदमी मुर्ख है'' का आशय यह है कि विभक्त समाज उपेक्षित महसूस करता है ! वौद्धिकता स्वयम के साथ न्याय नहीं कर रही जातियों और नस्लों तक सिमट गयी है ! नव वौधिक बर्ग शब्दों को बेच कर जीवन यापन के लिए मजबूर है ? सनातन शब्द अपना अर्थ खो रहा ,सह -अस्तिव की भावना क्रमश:अस्त हो रही ! मानवतावादी शक्तियाँ चुप है , संवेदनशीलता समग्रता के साथ न होकर खेमे में बटी है ! उत्तरदायित्व बोध का आभाव सा है ? पूजीवाद का स्वरूप जब तक मानवतावादी नहीं होगा, वैश्विक स्तर पर उसके परिणाम नकारात्मक होंगें ! उसी का प्रतिफल वैचारिक विद्रपता है।हम सभी को आत्मावलोकन करना पड़ेगा की मूल समस्या की जड़ में वह कौन सा तत्व है!जिससे विषमताए आयीं है!मेरे मत में मूल समस्या के जड़ में हमारी प्रवृतियाँ है हम मानवीय न होकर आत्म केन्द्रित हो गए है,यह वैयक्तिक विचलन ही सभी के समस्याओं जड़ है,हम सब मानव जैसे दीखते अवश्य है,किन्तु अन्दर की संवेदना मृत प्राय:हो चुकी है मानवता,जिससे नैतिक मूल्यों में ह्रास आ रहा है और हम निजी स्वार्थ में दृष्टिहीन होते जा रहे है!मेरी अपनी व्यक्तिगत राय में केवल नैतिक मूल्यों से ही
ReplyDeleteपाशविक प्रब्रितियो पर नियंत्रण पाया जा सकता है ,आंतरिक अनुशासन से ही हम
समाज में अपना अस्तिव अक्षुण रख पा रहे है, अगर ऐसा न होता तो पाषाण युग से आज
तक की यात्रा,या यूँ कहे की होमोसेम्पियेस से चेतना स्तर को हमने विकसित किया
या प्रकृति के द्वारा हो गया कह नहीं सकता ! सब कुछ मानवीय अनुशासन से और
मानवीयता से निसृत है और यह सब हमारे अंदर संवेदनशीलता से आती है, और संवेदना
का विकास हमरे प्रबत्तियों से, और प्रबत्तियां हमारे सांस्कृतिक मूल्यों से, और
सांस्क्रतिक मूल्य धर्म से ,और धर्म हमरी पद्यतियों से जीवन शौली से! रही कानून
व्यवस्था की बात, तो वो इसी अन्तर्द्वन्द की उपज है !व्यक्ति की पशुता को कानून
से नही दूर किया जा सकता ! एतिहासिक सांसकृतिक पृष्ठिभूमि का बिहंगम अवलोकन
\आवश्यक है !कानून व्यक्ति के लिए होता है पशु के लिए नहीं, अगर व्यक्ति में
पशुता है तो देवत्व भी है! अभी कितने साल हुए गाँधी जी को हमसे अलग हुए जितने
भी महापुरुष हुए है, वे ऐसा सिर्फ अपनी प्रबल घनीभूत संवेदनशीलता एवं द्रष्टिकोण
व्यापकता की वजह से ही है। अत: खेमों में न बटते हुए घनीभूत मानवीयता का विकाश करें।