A comment was made on my previous post ( in which I sent my Eid greetings ) asking my view about slaughter of animals in the name of religion
This reminded me of a case I heard in the Allahabad High Court soon after I was appointed a Judge in 1991.
A petition was filed before me by someone claiming to be a representative of Hindus in India, praying for a direction that Muslims should be prohibited from slaughtering buffaloes on the occasion of Bakrid ( Eid-ul-Zuha ).
I asked the counsel for the petitioner why I should pass such an order. He said because buffalo is the 'sawari' ( carriage) of Lord Yamraj ( the god of death, according to Hindus), and therefore killing of buffaloes hurts the religious sentiments of Hindus.
I said that in that case I must also prohibit killing of rats, because a rat is the sawari of Lord Ganesh. There are 33 crore gods among Hindus, each having a sawari. How many such orders will I have to pass ?
I said that if there is a law against killing of some animal I will certainly order enforcement of that law, but I will certainly not pass such orders on sentiments of someone.
There are laws in several states prohibiting killing of cows, and these have certainly to be enforced. There is also the Wildlife Protection Act, and therefore killing of wildlife in India is prohibited. But unless some statute is shown to me I will not prohibit killing of any animal.
On the occasion of Eid-ul-Zuha an animal ( usually a goat or a lamb) is slaughtered by Muslims as a sacrifice to God. But many poor Muslims cannot afford to buy a goat, as it has become too expensive. So a rule has been made that if 7 Muslims get together and collectively buy a buffalo and slaughter it, it will have the same spiritual benefit for each of them as sacrifice of a goat by each.
Since there is no law against slaughter of buffaloes i see nothing wrong in it. In fact even some Hindus e.g. Gurkhas slaughter buffaloes as a sacrifice to god, and eat its meat.
All sort of slaughtering should be banned, whether by Muslims or Hindus or in the name of any religion. Right to slaughter can not be considered a right at all, since one does not have the capacity to bring back to life the killed animal. Just by virtue of being born as human beings, we do not get the right to kill. If the legal system does not have a provision to stop killing of animals, the system is yet in its primitive phase and has to grow. Rule of law is to become rule of love for peaceful coexistence of all creatures on earth.
ReplyDeleteLegal system is not to make laws but to ensure that rule of law prevails in its jurisdiction. In India people(parliament) are lawmakers, they could always pass a strict act which bans slaughtering, hunting and fishing.
Deletesikander hayat
ReplyDeleteOctober 06,2014 at 10:24 AM IST
बहुत से गैर मुस्लिम बकरीद को इस नज़र से देखते हे की मानो एक तो ये कोई अलग से बकरो या दूसरे जानवरो का कत्ले आम हे इससे जानवरो की बहुत कमी हो जाती होगी दूसरा की मानो हर मुस्लिम बकरा काटता हो दोनों ही सोच गलत हे बकरीद पर अलग से कुछ नहीं होता क्योकि बकरीद के बाद हफ्ता- दसियो दिन कमेले बंद रहते हे यानी साल का औसत वही का वही होता हे बस फर्क ये होता की कमेलो की जगह जानवर कही और कटते हे लेकिन काटता उन्हें सिर्फ कसाई ही हे 99 % आम मुस्लिम नहीं दूसरा की ये आहार आधा गरीबो को दिया जाता हे गैर मुस्लिम भी खूब लेते हे प्रोटीन ही होता हे जो शरीर को काम आता हे दूसरा की बकरो आदि के व्यापारी अधिकतर गरीब ( मुस्लिम गैर मुस्लिम सभी ) होते हे जिन्हे बकरीद पर अपने जानवरो की शायद डबल ही कीमत मिल जाती हे उनका भला होता हे बाकी एक जेन ब्लॉगर हंसराज साहब से बहस हुई तो वो कहने की मांसाहारी जीवन लेते हे जो गलत हे मेने कहा की इन बातो का कोई हल नहीं है क्योकि किसी भी मटन चिकन वाले व्यापारी से पूछेंगे तो वो कह सकता हे की में जीवन ले नहीं बल्कि दे रहा हु मांस के लिए करोड़ो जानवरो की ब्रीडिंग कराई जाती हे दुनिया मे लाकर् पाल कर उन्हें ये सुन्दर दुनिया दिखलायी जाती हे सो जिसे खाने हो खाए नहीं खाना मत खाय मुझे खुद मटन मांस मछली का कोई खास शोक नहीं हे थोड़ा बहुत चिकन ही खाता हे बस सो इल्तज़ा हे की इन मुद्दो पर बहस ताने तिश्ने ना किये जाए समय की बर्बादी हे हा य जरूर है की बकरीद पर लाखो लाखो रुपयो के बकरे खरीदने की कोई तुक नही है बकरा दस बीस का भी लेकर आप बाकी पेसो से गरीबो की मदद भी कर सकते है य अधिक बेहतर होगा लेकिन जेसा की पूरे भारत मे हो ही रहा है की आएसा वेसा करके या बिना मेहनत के धन दोलत के ढेर पर बेठे लोग अपने धन के पारदर्शन के लिये य सब कर ही रहे है मेरे यहा चार चार बंदो की सेलरी पचास हज़ार से लाख के आस पास है फिर भी बकरे को कोई सात- दस हज़ार से आगे नही बढ़ता है सीधी से बात है क्योकि हमारे पास सिर्फ खून पसीने का पेसा हैRavi Raj (Delhi, India)
October 06,2014 at 04:30 PM
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अपनी जुबां के सवाद के लिए किसी पशु की कुर्बानी देना कँहा तक उचित है.?
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(Ravi Raj को जवाब )- sikander hayat
October 06,2014 at 10:20 PM IST
अपनी जुबा के स्वाद के लिये आदमी नॉर्मल दिनो के मुकाबिल डबल पेसा खर्च करके कुर्बानी का जानवर नही खरीदता है बड़े आराम से सीधे मार्किट से खरीद कर पूरा कर सकता है अपनी जुबा का स्वाद तो ? कुर्बानी का आधा तिहाई मांस जो जरूरी प्रोटीन होता है वो गरीबो को दिया जाता है सभी गरीब हिन्दू मुस्लिम सभी आज खुश होते है की इतनी महगाई मे आज ही के दिन उन्हे भी मटन ( 400 रुपये किलो ) खाने को मिल जाता है हमारा धोबी कार वाशर फूटबॉल ग्राउंड का माली आदि आदि सभी गेर मुस्लिम एक दिन पहले ही बोल कर ले जाते है